Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation

कैसे पंडित नेहरू के पहले मंत्रिमंडल के सदस्य डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी भारतीय जनसंघ के पहले अध्यक्ष बने

पिछले दो लोकसभा चुनावों (2014-2019) में राजनीतिक पंडितों के अनुमान, अंदाजे और गणित को धता बताते हुए अपने बलबूते पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने और अपने आप को दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में स्थापित करने वाली भारतीय जनता पार्टी के पोस्टरों और बैनरों पर दो चेहरे वर्षों से दिखते आए हैं। एक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी  का और दूसरा पं. दीन दयाल उपाध्याय का। दोनों में कई  समानताएं हैं, जिसमें से एक यह है कि दोनों की मौत रहस्यमय ढंग से हुई जिसका भेद आजतक नहीं खुल सका है। इस कारण दोनों के समर्थक समय-समय पर जांच की मांग भी करते रहते हैंI

पंडित दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रचारक बने और इस तरह राजनीति में उनका प्रवेश हुआI फिर वो भारतीय जनसंघ (आज की भाजपा) के संस्थापक सदस्य भी रहे, जिसके पहले अध्यक्ष डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी थेI

डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी की पृष्ठभूमि कुछ अलग हैI 6 जुलाई, 1901 को बंगाल के कलकत्ता में जन्मे श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने स्नातकोत्तर की पढ़ाई के उपरांत इंग्लैंड से वकालत कीI प्रारंभिक समय में एक शिक्षाविद् तथा वकील के रूप में उन्होंने स्वयं को कलकत्ता में प्रतिष्ठित किया और फिर कांग्रेस के जरिये उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुईI मतभेद हुए तो हिंदू महासभा के सदस्य भी बन गएI स्वतंत्रता के पश्चात गांधीजी के कहने पर स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उनको उद्योग मंत्री के रूप में स्थान दियाI लेकिन पूर्वी पाकिस्तान के हिन्दुओं के अधिकारों को जब नेहरू की सरकार द्वारा नजरअंदाज किया गया तो उन्होंने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया और भारतीय जनसंघ की स्थापना की। इसके पश्चात् स्वतंत्र भारत में कश्मीर को भारत का  पूर्ण और अभिन्न अंग बनाने के लिए उन्होंने अपना बलिदान तक कर दियाI डॉ. मुखर्जी अन्य राजनेताओं से काफी अलग थे, क्योंकि वे समस्याओं को अनदेखा नहीं करते थे, बल्कि उसकी तह तक जाते थे और संघर्ष करने से पीछे नहीं हटते थे।

33 साल की उम्र में कलकत्ता विश्ववद्यालय के उपकुलपति बनने वाले डॉ. मुखर्जी ने अपने सफलता पूर्ण दो कार्य कालों (1934 से 1938) में भारत के स्वदेशी विचार को विभिन्न माध्यमों से युवाओं तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण काम किया। उन्होंने बांग्ला भाषा को मेट्रिक तक अनिवार्य कर दिया था तथा अपने उपकुलपति रहते हुए अंग्रेजों के भारी विरोध के बावजूद भी कलकत्ता विश्वविद्यालय का दीक्षांत समारोह बांग्ला भाषा में करवाते रहे, जिसमें रबीन्द्रनाथ ठाकुर मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाए जाते। कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रतीक चिह्न को भी उनके कुलपतित्व में ही भारतीय स्वरूप दिया गया।

1937 में बंगाल की राजनीतिक परिस्थितियां देखते हुए उन्होंने राजनीति में सक्रिय होने का विचार किया। ‘डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी – एक संक्षिप्त जीवनी’ किताब के अनुसार डॉक्टर मुखर्जी को राजनीति में प्रवेश करवाने वाले लोगों में निर्मल चन्द्र चैटर्जी (पूर्व लोक सभा स्पीकर सोमनाथ चैटर्जी के पिता), आशुतोष लाहिरी, न्यायाधीश मन्मथ नाथ मुखर्जी शामिल थे। इसके अतिरिक्त स्वामी प्रणवानंदा (संस्थापक भारतीय सेवा आश्रम संघ), से भी डॉक्टर मुखर्जी को प्रेरणा और समर्थन प्राप्त हुआ।

विनायक दामोदर सावरकर, जो उस समय अखिल भारतीय हिंदू महासभा के नेता थे, 1939 में बंगाल प्रवास पर आए। डॉक्टर मुखर्जी की उनसे भेंट हुई और कुछ चर्चा-विमर्श के बाद उन्होंने हिंदू महासभा की सदस्यता ग्रहण कर ली। डॉक्टर मुखर्जी के मन मस्तिष्क मै निरंतर एक बात चल रही थी कि मुस्लिम लीग जहां एक तरफ मुसलमानों में अलगाव पैदा कर रही है, वहीं दूसरी तरफ हर जगह उनका पक्ष लेने को भी तत्पर रहती है, जबकि हिन्दुओं की बात उठाने के लिए कोई राजनीतिक दल सामने नहीं आता।

उनका विरोध मुसलमानों से नहीं था, बल्कि उस मुस्लिम लीग से था जो भारत में मुसलमानों में बंटवारे का ज़हर घोल रही थी। पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के मंत्रिमंडल में केन्द्रीय शिक्षा मंत्री रहे प्रताप चंद्र चुंदर के अनुसार ‘‘डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के हिंदू महासभा से जुड़ने का मुख्य कारण यह था कि मुस्लिम लीग हर जगह मुसलमानों के अधिकारों की बात करती थी  और उनका पक्ष लेती थी, वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस हिन्दुओं की बात आने पर मौन रहती थी। इसलिए वे हिंदू महासभा से जुड़े ताकि हिन्दुओं का पक्ष ले सकें।’’

1942 बंगाल में चक्रवाती तूफान और फिर सूखा पड़ने के कारण लाखों लोगों की मृत्यु हुई, इसके बाद डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी का अधिकतर समय सेवा कार्य में बीतने लगा।

भारत धीरे-धीरे विभाजन की तरफ जा रहा था। डॉक्टर मुखर्जी ये मानते थे कि सांप्रदायिक समस्या का निदान विभाजन से नहीं हो सकता।  जगह-जगह सांप्रदायिक दंगे शुरू हुए और भारत के विभाजन को कोई रोक ना सका। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी कहते हैं कि अगर डॉक्टर मुखर्जी और उनके साथी ना होते तो बंगाल पूरा पाकिस्तान में चला जाता। आज का पश्चिम बंगाल भी आज भारत का हिस्सा ना होता।

देश के विभाजन के बाद गांधीजी के कहने पर वे स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में उद्योग और आपूर्ति विभाग मंत्री बनाए गए। 1950 में उस समय के पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) में लाखों हिन्दुओं को मारा गया और उनपर अत्याचार हुए। डॉक्टर मुखर्जी ने तब पंडित जवाहरलाल नेहरू से पाकिस्तान के खिलाफ सख्त कार्रवाई की विनती कीI लेकिन जब पंडित नेहरू पाकिस्तान के खिलाफ कोई सख्त कदम नहीं उठाए तो अप्रैल, 1950 को उन्होंने पंडित नेहरू के मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद वे अपना ज़्यादातर समय पूर्वी बांग्लादेश से आए हुए शरणार्थियों के पुनर्वास और राहत कार्य में बिताने लगे।

दूसरी तरफ भारत के विभाजन के बाद कश्मीर का मुद्दा दिनों-दिन समस्या बनता जा रहा था। डॉ. मुखर्जी जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे।

उन्होंने नारा दिया कि  – ‘एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान नहीं चलेंगे’। कश्मीर समस्या पर नेहरू जी से उनका मतभेद हुआ। पाकिस्तानी हमलावरों को पूरी तरह खदेड़े बगैर मामला संयुक्त राष्ट्र में ले जाने को डॉ. मुखर्जी ने उचित नहीं माना। उन्होंने सवाल उठाया कि अगर संविधान पूरे देश के लिए अच्छा है, तो कश्मीर के लिए अलग से प्रावधान क्यों? यह प्रावधान कश्मीर को भारत से दूर करेगा और जम्मू एवं लद्दाख के लोगों के साथ भी धोखा होगा जो पूरा विलय चाहते हैं। स्वतंत्र भारत में कश्मीर के अंदर प्रवेश पाने के लिए परमिट लेकर जाना अनिवार्य कर दिया गया था। अपने ही देश के किसी भाग में जाने के लिए परमिट लेने के खिलाफ डॉक्टर मुखर्जी ने आन्दोलन छेड़ दिया I

मई, 1953 में श्यामाप्रसाद मुखर्जी दिल्ली से कश्मीर के लिए रवाना हुएI 11 मई को वे कश्मीर पहुंचे जहां उनको गिरफ्तार कर लिया गयाI उस समय युवा पत्रकार अटल बिहारी वाजपेयी (जो बाद में देश के प्रधानमंत्री बने) उनके साथ थे। डॉ. मुखर्जी ने अटल बिहारी वाजपेयी से कहा, ‘वाजपेयी जाओ और देशवासियों को कह दो कि मैं कश्मीर पहुंच गया हूँ और वो भी बिना परमिट के।‘

कश्मीर में बिना परमिट के प्रवेश के कारण उनको श्रीनगर में नजरबंद कर दिया गया, उनके साथ उनके साथी गुरुदत्त और तेखचंड शर्मा भी थे। डॉक्टर मुखर्जी का स्वास्थ्य दिनोदिन खराब होता गया। ह्रदय में तकलीफ महसूस होने पर 22 जून को पास के नर्सिंग होम में उन्हें भर्ती करवाया गया, परन्तु किसे पता था कि यही उनकी अंतिम घड़ी सिद्ध होगी। 23 जून, 1953 की सुबह उनकी मृत्यु की खबर आई, जिसका सही कारण आज तक सबके लिए रहस्य है।

डॉ. मुखर्जी ने देश की अखंडता के लिए बलिदान दे दिया। वो भारत को टुकड़ो में नहीं देखते थे, उनके लिए भारत एक और अखंड था। वरना बंगाल में जन्मे और अपने जीवन का अधिकतर समय वहीं बिताने के बाद भी वे कश्मीर के लिए अपने प्राणों की आहुति न देतेI वो कोई साधारण नेता नहीं थे, वरना मंत्री पद का त्याग करके संघर्ष कौन करता है भला राजनीती में!

(लेखक विवेकानंद केंद्र के उत्तर प्रान्त के युवा प्रमुख हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में परास्नातक की डिग्री प्राप्त की और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से वैदिक संस्कृति में सीओपी कर रहे हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)