Dr. Syama Prasad Mookerjee Research Foundation

जीएसटी: विपक्ष का दोहरा चरित्र

जीएसटी कांउसिल द्वारा दही, लस्सी, पनीर सहित कुछ अन्य खाद्य सामग्रियों पर 5 प्रतिशत जीएसटी लगाने के निर्णय का कांग्रेस सहित कुछ विपक्षी दल विरोध कर रहे हैं. ऐसा जाहिर करने का प्रयास किया जा रहा है कि यह निर्णय केंद्र सरकार ने लिया है. हालांकि यह निर्णय केंद्र सरकार का नहीं बल्कि ‘जीएसटी काउंसिल’ का है. यह एक नीतिगत निर्णय है. अत: इसका समर्थन अथवा विरोध भी नीतिगत होना चाहिए. तथ्यों को दरकिनार कर इसका विरोध, तर्कहीन राजनीति के सिवा कुछ नहीं है.

तथ्य ये है कि जीएसटी दरों के संबंध में कोई भी निर्णय लेने का अधिकार ‘जीएसटी काउंसिल’ को है. काउंसिल का गठन और इसकी कार्यप्रणाली ‘संघीय ढाँचे’ के अनुरूप है, जिसमें सभी राज्यों के वित्तमंत्री सदस्य हैं. निर्णय आदि के संबंध में वोटिंग के लिहाज से भी राज्यों तथा केन्द्रशासित प्रदेशों को दो तिहाई मतों की हिस्सेदारी मिली हुई है. अत: यह मानना सिरे से गलत है कि जीएसटी दरों में किसी प्रकार के निर्णय केंद्र सरकार द्वारा लिए जाते हैं. इसमें राज्यों की पर्याप्त भूमिका और हिस्सेदारी है. हालांकि अबतक का जो इतिहास है उसमें किसी भी निर्णय में वोटिंग कराने की स्थिति बहुत कम ही आती है. ज्यादातर निर्णय राज्य और केंद्र परस्पर सहमति से ही लेते रहे हैं. हाल की 47वीं जीएसटी काउंसिल बैठक में सिर्फ एक विषय ही ऐसा आया जिसमें वोटिंग कराने की नौबत आई थी.

दही, लस्सी, पनीर जैसी वस्तुओं पर 5 प्रतिशत जीएसटी लगाने का निर्णय भी इसी प्रक्रिया से होकर सर्वानुमति से आया है. गौरतलब है कि कोविड के दौरान परिस्थिति को देखते हुए लगभग दो-ढाई साल में काउंसिल द्वारा टैक्स में बदलाव संबधी कोई भी निर्णय नहीं लिया गया था. कोविड संकट से उबरने के बाद 17 सितंबर 2021 को लखनऊ में हुई  काउंसिल की 45वीं बैठक में राज्यों की तरफ से बदलावों को लेकर कुछ मांगे काउंसिल के सामने रखी गईं. जीएसटी दरों के संबंध में बदलावों से जुड़ी मांगों पर विचार करने के लिए काउंसिल ने सात राज्यों के प्रतिनिधित्व वाले एक ‘मंत्री समूह’ का गठन किया. उस मंत्री समूह में एनडीए शासित राज्यों- कर्नाटक, बिहार, उत्तर प्रदेश और गोवा के अलावा गैर-एनडीए शासित केरल, पश्चिम बंगाल और राजस्थान के वित्तमंत्री भी रहे.

आज अगर कांग्रेस सहित कुछ अन्य दल इस निर्णय का विरोध कर रहे हैं तो यह देखना भी जरुरी है कि मंत्री समूह के सुझावों और जीएसटी काउंसिल की बैठक में उनकी सरकारों का पक्ष क्या था ? काउंसिल की 45वीं बैठक के बाद लगभग छ: महीने विचार-विमर्श करके हाल में हुई 47वीं बैठक में मंत्री समूह द्वारा दिए गये सुझावों के आधार पर सभी राज्यों ने सर्वानुमति से नई दरों को लागू करने का निर्णय लिया. इसी निर्णय के तहत कुछ खाद्य सामग्रियों पर 5 प्रतिशत जीएसटी लगाया गया है. अगर यह निर्णय गलत है तो क्या राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने ‘मंत्री समूह’ में अथवा काउंसिल बैठक में इसपर असहमति जताई ? जवाब है-नहीं. क्या तृणमूल कांग्रेस की सरकार ने असहमति जताई ? जवाब है- नहीं. क्या केरल की लेफ्ट सरकार ने इसपर काउंसिल बैठक में असहमति जताई? जवाब है- नहीं.

फिर सवाल उठता है कि इस निर्णय का विरोध कर रही कांग्रेस के विरोध का आधार क्या है ? अगर सिर्फ विरोध के लिए विरोध किया जा रहा तो यह कतई उचित नहीं है.

इसी मसले से जुड़ा एक और तथ्य समझना आवश्यक है. ऐसा जाहिर करने का प्रयास हो रहा है कि जिन वस्तुओं पर 5 प्रतिशत जीएसटी लगाईं गयी है, उनपर अब से पहले कभी टैक्स नहीं लगा था. यह कहना पूरी तरह से असत्य और भ्रामक है. जीएसटी 2017, जुलाई में लागू हुई. तबसे लेकर अभी तक इन चुनिन्दा वस्तुओं पर जीएसटी के तहत कोई टैक्स नहीं लगा. लेकिन जीएसटी के अस्तित्व में आने से पहले खाने-पीने से जुड़ी वस्तुओं की एक लंबी सूची है जिनपर ‘वैट’ जैसे टैक्स लगते थे. कई वस्तुओं पर तो 5 प्रतिशत से ज्यादा टैक्स लोगों को देना पड़ता था. मसलन, जीएसटी लागू होने से पहले भी पावडर दूध, चाय, शहद, सोयाबीन तेल, सब्जी बनाने में उपयोग होने वाले अनेक तेल, चीनी आदि पर 6 प्रतिशत टैक्स लगते थे. कुछ वस्तुएं तो ऐसी भी थीं जिनपर 12 प्रतिशत तक टैक्स लोगों को देना पड़ता था. वर्तमान में हुए जीएसटी बदलावों के बावजूद भी इनमें से कई वस्तुओं पर टैक्स पहले की तुलना में कम देना पड़ेगा. अत: जीएसटी को लेकर कांग्रेस सहित अन्य दलों का वितंडा और विरोध तर्कों की कसौटी पर कमजोर नजर आता है.

एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि आखिर काउंसिल को इन वस्तुओं पर टैक्स बदलाव करना क्यों पड़ा ? दरअसल राज्य के लिए कर संग्रहण उसी तरह अनिवार्य है, जैसे मानव शरीर के लिए साँसों का चलते रहना. तर्कसंगत ‘कर प्रणाली’ की आलोचना करने वाली नीतियाँ राज्य की शक्ति को कमजोर करती हैं. महाभारत के शांति पर्व में भीष्म कहते हैं कि- कोशस्योपार्जनरतिर्यमवैश्रवणोपमः, अर्थात ‘राजाको अपने कोषागार के प्रति सचेत रहना चाहिए.’ यही राज्य के साथ न्याय है.

कोविड संकट आने के बाद लगभग दो-ढाई साल तक कोई भी कर बदलाव नहीं हुआ था. राज्यों द्वारा इसका हवाला देकर राजस्व में कमी की बातें लगातार बैठकों आती रहीं. कर में छूट से हो रहे घाटे को वहन करने में राज्य अक्षमता जता रहे थे. उनकी चिंता वाजिब और स्वाभाविक भी थी. चूँकि जीएसटी लागू होने से पहले इन्हीं वस्तुओं पर राज्यों को कर अंश मिलता था, जो जीएसटी लागू होने के बाद बंद हो गया, लिहाजा उनकी मांग आनी ही थी. उसी मांग के तहत गहन चर्चा और विमर्श के बाद जीएसटी काउंसिल ने ‘मंत्री समूह’ के सुझावों के आधार पर ये टैक्स बदलाव किये हैं. अत: इसको लेकर केंद्र की मोदी सरकार पर इसका ठीकरा फोड़ना समझ से परे है. अगर यह गलत निर्णय है तो इस गलती के भागीदार कांग्रेस सहित सभी हैं और अगर सही है तो उसके श्रेय के साझीदार भी सभी हैं.

इस मसले पर विरोध का झंडा उठाकर घूम रहे कांग्रेस सहित अन्य दलों को यह भी समझना होगा कि कर व्यवस्था देश के आर्थिक ढाँचे के लिए है, न कि किसी दल के राजनीतिक हितों की पूर्ति करने के लिए. अत: ऐसे मसलों पर देश सभी राजनीतिक दलों से गंभीरता की अपेक्षा रखता है. कम से कम अपने नीतिगत स्टैड को तो कांग्रेस सहित अन्य दलों को स्पष्ट रखना ही चाहिए. एक ही विषय पर दो मत होना विपक्ष की नीतिगत सोच पर सवाल खड़े करता है. इससे विपक्ष के प्रति लोगों के विश्वास में गिरावट ही आएगी.

राजनीतिक दलों के समर्थन और विरोध का आधार उनके नीतिगत विषयों पर केन्द्रित  होते हैं. नीतिगत विषयों के आधार पर ही समर्थन और विरोध, सहमति अथवा असहमति के बिंदु तय होते हैं. लेकिन कांग्रेस पार्टी नीतिविहीन राजनीति की नई परिपाटी शुरू कर चुकी है. आज कांग्रेस का राजनीतिक स्टैंड उसके अपने दल की राजस्थान सरकार की नीतियों के विरोध में खड़ा नजर आ रहा है.

यह दिशाहीन, नीतिविहीन और अनिर्णय की राजनीति न तो देशहित में है और न ही विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस के ही हित में है.

नीति और राजनीति में भारी विरोधाभास

अटल बिहारी वाजपेयी ने कभी जवाहर लाल नेहरू के लिए कहा था, ‘आपमें चर्चिल भी है और चेंबरलेन भी.’ वाजपेयी तब शायद नेहरू के व्यक्तित्व में घुले मिश्रित आचरण का उल्लेख कर रहे थे. किन्तु वर्तमान की कांग्रेस के नेताओं के व्यक्तित्व और बयानों में विरोधाभाषों की अधिकता है. कांग्रेस का नीतिगत स्टैंड कुछ और दिखाई देता है तो दूसरी तरफ राजनीतिक स्टैंड अपनी ही नीति के विरोध में खड़ा नजर आता है. हाल में हुए जीएसटी दर में बदलावों पर कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी ने उन सामग्रियों की लिस्ट शेयर करके  ट्वीट करते हुए इसे ‘हाई टैक्स’ बताया. इसका सारा ठीकरा उन्होंने अपने ट्वीट में बीजेपी के सिर पर फोड़ दिया. रोचक ये है कि राहुल गांधी के इस ट्वीट को राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बिना देर किये री-ट्वीट कर दिया. जबकि इन वस्तुओं पर टैक्स संबंधी विचार के लिए विशेष रूप से बनाए गये ‘मंत्री समूह’ में राजस्थान सरकार के प्रतिनिधि भी शामिल थे. राजस्थान सरकार ने इसपर सहमति भी दी. सभी की अनुमति से इसे लागू किया गया. फिर सवाल उठता है कि यह दोहरा चरित्र क्यों?

इसका सीधा अर्थ निकलता है कि जब जनता से कर वसूलना हो तो कांग्रेस पार्टी का पक्ष अलग है और जब राजनीति करनी हो तो उनका पक्ष बिलकुल उल्टा हो जाता है. कथनी और करनी में भेद की इससे बड़ी मिसाल हाल की राजनीति में  खोजना मुश्किल है. ऐसे में बड़ा सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस पार्टी में नीति और राजनीति का परस्पर कोई संबंध नहीं बचा ? क्या कांग्रेस की राजनीति का नीतियों से कोई लेना-देना नहीं है ?

महंगाई को लेकर राहुल गांधी मुखरता से ट्वीटर पर बोलते हैं. जीएसटी से अलग अगर एक उदाहरण देखें तो पेट्रोल-डीजल की कीमतों में उछाल को लेकर भी खूब राजनीतिक बयानबाजियां होती हैं. कांग्रेस के नेता राहुल गांधी इस मुद्दे पर मोदी सरकार को ऐसे घेरते हैं मानो पेट्रोल-डीजल की कीमतों को बढ़ाने-घटाने का सर्वाधिकार केंद्र सरकार का ही हो! जबकि इस मामले में भी सही तथ्य इसके उलट है. पिछले साल नवंबर में केंद्र सरकार ने पेट्रोल-डीजल में एक्साइज ड्यूटी घटाई थी और राज्यों से भी वैट कम करने का अनुरोध किया था. जिन राज्यों ने वैट में कमी की वहां पेट्रोल-डीजल की कीमतों में गिरावट हुई. किन्तु राजस्थान, पश्चिम बंगाल, केरल, झारखंड जैसे कई राज्यों ने वैट कम नहीं किया, परिणामत: वहां ईधन कीमतें अन्य राज्यों की तुलना में बहुत अधिक रहीं.

कहने का आशय यह है कि अगर कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी वाकई महंगाई कम करने को राजस्व अर्जित करने की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं तो वे भी कांग्रेस शासित राज्यों को वैट में कमी करने की अपील किये होते. लेकिन उन्होंने ऐसा कभी नहीं कहा कि राजस्थान, छत्तीसगढ़ या झारखंड सरकारों को वैट कम करना चाहिए. इससे जाहिर होता है कि उनकी नीति और राजनीति में भारी विरोधाभास है. उनके सोचने और करने में भारी फर्क है.

(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)